Thursday 10 November 2011

झूठ को ये सच कभी कहते नहीं

झूठ को ये सच कभी कहते नहीं
टूट कर भी आइने डरते नहीं

हो गुलों की रंगो खुशबू अलहदा
पर जड़ों में फ़र्क तो दिखते नहीं

जिनके पहलू में धरी तलवार हो
फूल उनके हाथों में जँचते नहीं

अब शहर में घूमते हैं शान से
जंगलों में भेड़िये मिलते नहीं

साँप से तुलना न कर इंसान की
बिन सताए वो कभी डसते नहीं

कुछ की होंगीं तूने भी गुस्ताखियाँ
ख़ार अपने आप तो चुभते नहीं

बस खिलौने की तरह हैं हम सभी
अपनी मरज़ी से कभी चलते नहीं

फल लगी सब डालियाँ बेकार हैं
गर परिंदे इन पे आ बसते नहीं

ख़्वाहिशें नीरज बहुत सी दिलमें हैं
ये अलग है बात की कहते नहीं


रचनाकार - मा० नीरज गोस्वामी  जी

Thursday 3 November 2011

घाव जो देते वही उपचार की बातें करें

तीर खंजर की न अब तलवार की बातें करें
जिन्दगी में आइये बस प्यार की बातें करें


टूटते रिश्तों के कारण जो बिखरता जा रहा
अब बचाने को उसी घर -बार की बातें करें


थक चुके हैं हम बढ़ा कर यार दिल की दूरियाँ
छोड़ कर तकरार अब मनुहार की बातें करें


दौड़ते फिरते रहें पर ये ज़रुरी है कभी
बैठ कर कुछ गीत की झंकार की बातें करें


तितलियों की बात हो या फिर गुलों की बात हो
क्या जरूरी है कि हरदम खार की बातें करें


कोई समझा ही नहीं फितरत यहाँ इन्सान की
घाव जो देते वही उपचार की बातें करें


काश 'नीरज' हो हमारा भी जिगर इतना बड़ा
जेब खाली हो मगर सत्कार की बातें करें


रचनाकार ----- नीरज गोस्वामी

उलझनें उलझनें उलझनें उलझनें

उलझनें उलझनें उलझनें उलझनें
कुछ वो चुनती हमें,कुछ को हम खुद चुनें


जो नचाती हमें थीं भुला सारे ग़म
याद करते ही तुझको बजी वो धुनें


पूछिये मत ख़ुशी आप उस पेड़ की
जिसकी शाखें परिंदों के गाने सुनें


वक्त ने जो उधेड़े हसीं ख्वाब वो
आओ मिल कर दुबारा से फिर हम बुनें


सिर्फ पढने से होगा क्या हासिल भला
ज़िन्दगी में न जब तक पढ़े को गुनें


जो भी सच है कहो वो बिना खौफ के
तन रहीं है निगाहें तो बेशक तनें


अब रिआया समझदार 'नीरज' हुई
हुक्मरां बंद वादों के कर झुनझुनें






रचनाकार ---- नीरज गोस्वामी

Friday 23 September 2011

प्रार्थना

प्रार्थना


आस्था मे जुडे हुये हाथ
श्रद्धा मे झुका हुआ सर
विश्वास मे बन्द हुई आखे
मन से किया हुआ समर्पन
बताती है प्रार्थना क्या है | 

स्वरचित

Friday 9 September 2011

रात के घुप अन्धेरे में......

रात के घुप अन्धेरे में जो एकाएक जागता है
और दूर सागर की घुरघुराहट-जैसी चुप
सुनता है
वह निपट अकेला होता है।
अन्धकार में जागनेवाले सभी अकेले होते हैं।

पर जो यों ही सहमी हुई रात में
थके सहमे सियार की हकलाती हुआँ-हुआँ-सी
हवाई हमले के भोंपू की आवाज़ से
एकाएक जगा दिया जाता है
वह और भी अकेला होता है:
और जब वह घर से बाहर निकल कर
सागर की घुरघुराहट-जैसे चुप
घनी रात के घुप अन्धेरे में
घिर जाता है
तब वह अकेले के साथ
मामूली भी हो जाता है।

घुप रात के
चुप सन्नाटे में
अकेलापन
और मामूलियत:
इसे अचानक जगाया गया
हर आदमी
अपनी नियति पहचानता है।

वही हम हैं:
घुप अन्धेरे में
सरसराहटें सुनते हुए
अकेले
और मामूली।

न होते अकेले
तो डरते।
न होते मामूली
तो घबराते।
पर अकेले होने और साथ ही मामूली होने में
एकाएक
अन्धेरा हमारी मुट्ठी में आ जाता है
और वह अनपहचानी सुरसुराहट
एक सन्देश बन जाती है
जिसे हर मामूली अकेला
अकेलेपन और मामूलियत की सैकड़ों सदियों से जानता है:
कि वह एक
बच जाता है;
वही
अनश्वर है।

मामूली और अकेला:
उस घुप अंधेरे में
मेर भीतर से सैकड़ों घुसपैठिए
आग लगाते हुए गुज़र जाते हैं—
पर उसी में
मैं उन सब की ज़िन्दगी जीता हूँ
जिन्होंने दुश्मन के टैंक तोड़े
जिन्होंने बममार विमान गिराए
जिन्होंने राहों में बिछाई गईं विस्फोटक
सुरंगे समेटीं,
जो गिरे और प्रतीक्षा में रह कर भी उठाए नहीं गए,
पथरा गए,
जो खेत रहे,
जिन्होंने वीर कर्मों के लिए सम्मान पाया—
और मैं उन सब की भी ज़िन्दगी जीता हूँ
जिन के नामहीन, स्वरहीन, अप्रत्याशित, अतर्कित भी
आत्म-त्याग ने
इन वीरों को
अपने जाज्वल्यमान कर्मों का
अवसर दिया।

और यों
इन नामहीनों की ज़िन्दगी जीता हुआ मैं
वहीं लौट आता हूँ जहाँ मैं होता हूँ जब मैं जागता हूँ—
मामूली और अकेला
मैं अंधेरे के घुप में एक प्रकाश से घिर जाता हूँ—
मैं, जो नींव की ईंट हूँ:
सुरसुराते चुप में एक अलौकिक संगीत से गूंज
उठता हूँ
मैं जो सधा हुआ तार हूँ:
मैं, मामूली, अकेला, दुर्दम, अनश्वर—
मैं, जो हम सब हूँ।

तब वह ठिठुरे सियार की रिरियाती पुकार
एक स्पष्ट, तेज़, आश्वस्त गूंजती और गुंजाती हुई
एकसार आवाज़ बन जाती है
मेरा अकेलापन एक समूह में विलय हो जाता है
जिस के हर सदस्य का एक बंधा हुआ कर्त्तव्य है
जिसे वह दृढ़ता से कर रहा क्योंकि वह उसके
जीवन की बुनियाद है,
और मेरी मामूलियत एक सामर्थ्य, एक गौरव,
एक संकल्प में बदल जाती है
जिस में मैं करोड़ों का साथी हूँ:
रात फिर भी होगी या हो सकती है
पर मैं जानता हूँ कि भोर होगा
और उस में हम सब
संकल्प से बंधे, सामर्थ्य से भरे और गौरव से
घिरे हुए हम सब
अपने उन कामों में जमें होंगे
जिन से हम जीते हैं
जिन से हमारा देश पलता है
जिन से हमारा राष्ट्र रूप लेता है—
वयस्क, स्वाधीन, सबल, प्रतिभा-मण्डित, अमर—
और हमारी तरह अकेला—क्योंकि अद्वितीय...

इस से क्या
कि सवेरे हम में से एक
साइकल ले कर दिन-भर के लिए क़लम घिसने जाएगा
और एक दूसरा झाबा ले कर तरकारी बेचने
और एक तीसरा झल्ली लेकर ढुलाई करने—
मिट्टी की, या दूसरों के ख़रीदे फल-मेवे और कपड़ों की—
और एक चौथा मोटर में बैठता हुआ चपरासी से फाइलें
उठवाएगा—
एक कोई बीमार बच्चे को सहलाता हुआ आश्वासन
देगा—'देखो,
सका तो ज़रूर ले आऊँगा'—
और एक कोई आश्वासन की असारता जानता हुआ भी
मुसकरा कर कहेगा—
'हाँ, ज़रूर, भूलना मत!'
इस से क्या कि एक की कमर झुकी होगी
और एक उमंग से गा रहा होगा—'मोसे गंगा के पार...'
और एक के चश्मे का काँच टूटा होगा—
और एक के बस्ते में स्कूल की किताबें आधी से
अधिक फटी हुई होंगी?
एक के कुरते की कुहनियाँ छिदी होंगी,
एक के निकर में बटनों का स्थान एक आलपिन
ने लिया होगा,
एक के हाथ की पोटली में गए दिन के सवेरे के
रोट का टुकड़ा होगा,
एक के हाथ की जेब में सिगरेट की महकती डिबिया
और लासे की मीठी टिकियाँ
जिस से वह दिन-भर मुँह से लचकीले बुलबुले निकाला करेगा
और फिर वापस खींच लिया करेगा,
एक ने गालों से गए दिन की नक़ली रंगत नए दिन की
नक़ली बालाई से उतारी होगी,
और एक ने चेहरे पर उबटन की जगह पसीने-धूल की
लीकों को हथेली की पुश्त से और लम्बा कर लिया होगा,
और एक के हाथों पर बूट-पॉलिश की महक और
रंगत की लिखत
दिन-भर के लिए आशा का पट्टा होगी?
इस सब से क्या
उस सब से क्या
किसी सबसे क्या
जब कि अकेलेपन में
एक व्याप्त मामूलीपन का स्पन्दन है
और वह व्याप्त मामूलीपन एक डोर है
जिस में हम सब
हर अकेली रात के अंधेरे में
एक सम्बन्ध और सामर्थ्य और गौरव की लड़ी में बंधते हैं—
हम, हम, हम, हम भारतवासी?

रचनाकार -अज्ञेय जी

अजीब आदमी हो जी!

अजीब आदमी हो जी!
फजीहत
फजीहत कहते हो
फजीहत फाड़कर
मैदान में
नहीं उतरते हो
मायूस बैठे
मातम मनाते हो।
कुछ तो करो जी,
खाल की ही
खजड़ी बजाओ,
उछलो
कूदो
नाचो
गाओ
माहौल तो
जिंदगी जीने का
बनाओ
हँसो
और
हँसाओ।

रचनाकार -केदारनाथ अग्रवाल जी

Thursday 8 September 2011

अक्सर हम भूल जाते है

अक्सर हम भूल जाते हैं चाबियाँ
जो किसी खजाने की नहीं होती
अक्सर रह जाता है हमारा कलम
किसी अनजान के पास
जिससे वह नहीं लिखेगा कविता

अक्सर हम भूल जाते हैं
उन मित्रों के टेलीफ़ोन नंबर
जिनसे हम रोज़ मिलते है
डायरी में मिलते है
उन के टेलीफ़ोन नंबर
जिन्हें हम कभी फ़ोन नहीं करते

अक्सर हम भूल जाते हैं
रिश्तेदारों के बदले हुए पते
याद रहती है रिश्तेदारी

अक्सर याद नहीं रहते
पुरानी अभिनेत्रियों के नाम
याद रहते है उनके चेहरे

अक्सर हम भूल जाते हैं
पत्नियों द्वारा बताये काम
याद रहती है बच्चों की फरमाइश

हम किसी दिन नहीं भूलते
सुबह दफ़्तर जाना
शाम को बुद्धुओं की तरह
घर लौट आना


गोविन्द माथुर

अंधकार बढ़ता जाता है

अंधकार बढ़ता जाता है!

मिटता अब तरु-तरु में अंतर,
तम की चादर हर तरुवर पर,
केवल ताड़ अलग हो सबसे अपनी सत्ता बतलाता है!
अंधकार बढ़ता जाता है!

दिखलाई देता कुछ-कुछ मग,
जिसपर शंकित हो चलते पग,
दूरी पर जो चीजें उनमें केवल दीप नजर आता है!
अंधकार बढ़ता जाता है!

ड़र न लगे सुनसान सड़क पर,
इसीलिए कुछ ऊँचा स्वर कर
विलग साथियों से हो कोई पथिक, सुनो, गाता आता है!
अंधकार बढ़ता जाता है!


हरिवंशराय बच्चन

अंदर का आदमी

अंदर का आदमी
पहली बार
अंदर का आदमी
दिखाई दे रहा था,
एकदम उसके बाहर
साफ-साफ
उजला और चमकदार

उसकी व्यस्त चर्या में
शौच, स्नान, नाश्ता-भोजन की
कोई ख़ास अहमियत नहीं थी,
वह थोड़ी-सी ऊर्जा इकट्ठी कर
रोज़ काम पर निकल जाता था--
अंदर के आदमी को
बाहर के मज़बूत आदमी से
जकड़े हुए

वह अंदर के आदमी से
बदशक्ल था
और ठण्ड में
अपनी दादी की कथरी ओढ़े हुए था

अंदर का आदमी
बेहद दुबला-पतला था,
वह तमीज़दार था
उसके बालों पर
कंघी हुई थी
कपड़े पुराने थे
पर, धुलाए-इस्तरी कराए हुए थे

वह गंभीर था,
बाहर के आदमी की तरह
मुंह चियारे हुए
अपनी बदनसीबी
बयां नहीं कर रहा था

मैंने पहली बार
अंदर के आदमी को
बाहर के आदमी के बाहर
क़दम-दर-क़दम
चलते हुए देख रहा था

अंदर के आदमी की पीठ पर
एक भारी-भरकम गठरी थी
गठरी में आसमान था--
सपनों का
जो रहा होगा कभी
टूटा-फूटा,
आज वह बुरादा होकर
कूड़े में तब्दील हो गया था,
उसके सपनों के कूड़े से
सडांध आ रही थी
पर, मोह उसे छोड़ नहीं रहा था

सपनों के बुरादे में क्या था--
एक गाँव था
गाँव में एक नन्हा-सा मटियाला घर
घर के बाहर एक गाय
और हू-ब-हू
अंदर के बूढ़े आदमी की शक्ल का
एक जवान ग्वाला
जो उसे दूह रहा था,
उसके बच्चे
वहां खड़े-खड़े
गिलास-भर दूध की बाट जोह रहे थे
वे दूध पी-पी, पल-बढ़ रहे थे
और ग्वाला बूढा हो रहा था

मैंने पहली बार देखा कि
अंदर का आदमी
इतना दस्तावेजी था!
उसके हर हिज्जे पर
कुछ लिखा हुआ था--
हथेलियों पर
मेहनत की इबारत लिखी हुई थी
बेटों के पालन-पोषण
बेटियों का ब्याह
और पत्नी की अंत्येष्टि के लिए
महाजन का उधार लिखा हुआ था

मेरी आँखें उसका अंतरंग देख रही थी,
पहली बार मैंने
अंदर के आदमी को
पारदर्शी होते देखा था,
पेट में पचती हुई बासी रोटियां थीं
रोटियों पर वह था
रिक्शा चलाकर
मोहल्ले के बच्चों को
स्कूल पहुंचाते हुए,
पहली बार मैंने देखा कि
एक मेहनतकश के पेट में
शराब, सिगरेट और बीड़ी
नदारद थीं

उसके दिमाग में
योजनाओं और विचारों का
बवंडर चल रहा था,
घरेलू खर्चों के फटे नुस्खे
उड़ रहे थे
जिन्हें वह जोड़-जोड़
सामानों के नाम पढ़ रहा था
और जीवनोपयोगी चीजों को
रेखांकित कर रहा था

मैंने उसके पारदर्शी जिस्म में
बाजार देखा
जहां वह बनियों के आगे
हाथ जोड़े
आटा, दाल, चावल
हल्दी-नमक और तेल-मसाला
उधार माँग रहा था

पहली बार
और सिर्फ पहली बार
मैंने देखा कि
अंदर का आदमी
किस कदर बाहर आने
और बाहर के आदमी के
हाथ में हाथ डालकर
चलने के लिए
जूझ रहा था

मैं उस अंदर के आदमी से
मिलना चाहता हूँ
और कहना चाहता हूँ
कि अगर वह
उस आदमी से ऊब गया है तो
मेरे साथ चले,
मैं कभी उसे
अपने भीतर जाने के लिए
ज़द्दोज़हद नहीं करूंगा.


मनोज श्रीवास्तव

अंत में मैं ही हँसूंगा ..

अंत में मैं ही हँसूंगा
सर्वप्रथम मैं ही रहूंगा
अन्तिम होने पर भी
राख की ढेरी होते हुए भी
ज्वालामुखी-सा धधकूंगा
काफ़्का का किला होकर भी
खुले हुए आँगन की तरह
खुला रहूँगा
गिलहरियोंके लिए
उनकी चंचलता
चिडियों के लिए
उनकी प्रसन्नता
चींटियों के लिए
उनका अन्न
नदियों के लिए
उनका जल
उदास मनुष्यों की उदास दुनिया के लिए
उसका स्वप्न
लेकर जल्दी ही आऊँगा
अंत में मैं ही हँसूंगा

आग्नेय

अंजलि के फूल गिरे ...

अंजलि के फूल गिरे जाते हैं
आये आवेश फिरे जाते हैं।

चरण-ध्वनि पास-दूर कहीं नहीं
साधें आराधनीय रही नहीं
उठने,उठ पड़ने की बात रही
साँसों से गीत बे-अनुपात रही

बागों में पंखनियाँ झूल रहीं
कुछ अपना, कुछ सपना भूल रहीं
फूल-फूल धूल लिये मुँह बाँधे
किसको अनुहार रही चुप साधे

दौड़ के विहार उठो अमित रंग
तू ही `श्रीरंग' कि मत कर विलम्ब
बँधी-सी पलकें मुँह खोल उठीं
कितना रोका कि मौन बोल उठीं
आहों का रथ माना भारी है
चाहों में क्षुद्रता कुँआरी है

आओ तुम अभिनव उल्लास भरे
नेह भरे, ज्वार भरे, प्यास भरे
अंजलि के फूल गिरे जाते हैं
आये आवेश फिरे जाते हैं।।

माखनलाल चतुर्वेदी

अँधेरों से कब .......?

अँधेरों से कब तक नहाते रहेंगे ।
हमें ख़्वाब कब तक ये आते रहेंगे ।

हमें पूछना सिर्फ़ इतना है कब तक,
वो सहरा में दरिया बहाते रहेंगे ।

ख़ुदा न करे गिर पड़े कोई, कब तक,
वे गढ्ढों पे चादर बिछाते रहेंगे ।

बहुत सब्र हममें अभी भी है बाक़ी,
हमें आप क्या आजमाते रहेंगे ।

कहा पेड़ ने आशियानों से कब तक,
ये तूफ़ान हमको मिटाते रहेंगे ।


गौरीशंकर आचार्य ‘अरुण’

700 बुद्धिजीवियो ......

बिना न्योते के
हम आ पहुँचे हैं
700 (और बहुतेरे अभी राह पर हैं)
हर कहीं से, जहाँ अब हवा नहीं बहती है
चक्कियों से, जो पस्त पीसती जाती हैं, और
अलावों से, जिनके बारे में कहा जाता है
अब वहाँ कुत्ता भी मूतने नहीं जाता।


2

और हमने तुम्हें देखा
अचानक
ओ तेल की टंकी!


3

अभी कल ही तुम नहीं थी
लेकिन आज
बस तुम ही तुम हो।


4

जल्दी करो, लोगो!
उस डाल को काटने वाले, जिस पर तुम बैठे हो
कामगारो!
भगवान फिर से आ चुके हैं
तेल की टंकी के भेस में।


5

ओ बदसूरत!
तुमसे ख़ूबसूरत कोई नहीं।
चोट करो हम पर
ओ समझदार !
ख़त्म कर दो मैं की भावना!
हमें समूह बना डालो!
वैसा कतई नहीं, जैसा हम चाहते हैं :
बल्कि जैसा कि तुम चाहती हो।


6

तुम हाथीदाँत की नहीं बनी हो
आबनूस की भी नहीं, बल्कि
लोहे की!
लाजवाब! लाजवाब! लाजवाब!
तुम निरभिमान!


7

तुम अदृश्य नहीं
तुम अनंत नहीं !
तुम सात मीटर ऊँची हो।
तुम में कोई रहस्य नहीं
बल्कि तेल है।
और हमसे तुम्हारा नाता
भावनात्मक या दुर्बोध नहीं
बल्कि हिसाब के बिल के मुताबिक है।


8

घास क्या है तुम्हारे लिए?
तुम उस पर बैठती हो।
जहाँ कभी घास थी
अब तुम विराजमान हो, ओ तेल की टंकी!
और भावनाएँ तुम्हारे लिए
कुछ भी नहीं हैं!


9

इसलिए हमारी सुनो
और हमें चिंतन के पाप से मुक्ति दिलाओ।
बिजलीकरण के नाम पर
प्रगति और आंकड़ों के नाम पर।

रचनाकाल : 1927

मूल जर्मन भाषा से अनुवाद : उज्ज्वल भट्टाचार्य

............कि जीवन ठहर न जाए

कि जीवन ठहर न जाए
आओं कुछ करें
शहर के बाहर
उस मोडे के डेरे में
छुपकर बेरियां झड़कायें
और बटोरें खट्टे-मिट्ठे बेर।
चलो न आज
रेल की पटरी पर
‘दस्सी’ रखकर
गाड़ी का इंतजार करें
कितनी बड़ी हो जाती है दस्सी
गाड़ी के नीचे आकर !


चलो तो-
झोली में भर लें
छोटे-बड़े कंकर और ठीकरियां,
चुंगी के पास वाले जोहड़े में
ठीकरियों से पानी में थालियां बनायें
छोटी-बड़ी थालियां।
थालियों में भर-भर सिंघाड़े निकालें।
छप्-छप् पैर चलाकर
जोहड़ में ‘अन्दर-बाहर’ खेलें।

या कि
गत्ते से काटें बड़े-बड़े सींग
काली स्याही में रगंकर
सींग लगाकर
उस मोटू को डरायें।
कैसे फुदकता है मोटू-सींग देखकर।

कितना कुछ पड़ा है करने को।
अखबारों से फोटूएं काट-काटकर
बड़े सारे गत्ते पर चिपकाना
धागे को स्याही में डुबोकर
कॉपी में ‘फस्स’ से चलाना
और उकेरना
पंख, तितली या बिल्ली का मुँह !

चोर सिपाही, ‘पोषम पा भई पोषम पा’ खेलें
कितने दिन गुज़र गये।
चलो ना-कुछ करें
कहीं से भी सही-शुरू तो करें
....... कि जीवन ठहर ना जाये
चलो कुछ करें।

'मन्त्र पुराने काम न देंगें, मन्त्र नया पढ़ना है

'मन्त्र पुराने काम न देंगें, मन्त्र नया पढ़ना है
मानवता के हित मानव का रूप नया गढ़ना है
सागर के उस पार शक्ति का कैसा स्रोत निहित है?
ज्ञान और विज्ञान कौन वह जिससे विश्व विजित है?
मुझे सिंह की गहन गुफा में घुसकर लड़ना होगा
दह में धँसकर कालिय के मस्तक पर चढ़ना होगा
मुक्ति नहीं, पिँजरे में पक्षी कितना भी पर मारे
बिना युक्ति के राम न मिलते, कोई लाख पुकारे’

. . .

मद्य-मांस-मुक्ताचारी उस भ्रष्ट देश में जाकर
लौट सका है कोई अपना धर्माचरण बचाकर!
यद्यपि मोहन के चरित्र में तनिक नहीं है शंका
किन्तु मोहिनी मायावाली वह सोने की लंका
उस काजल के घर से अमलिन कौन भला फिर आये!
"मेरे भोले बालक को तो, चाहे जो, ठग जाये"
जननी की आँखों को लगता पुत्र सदा बालक ही
कितना भी हो जाय बड़ा, रहता है घुटनों तक ही
कंस-विजय को दया यशोदा ने देवों की माना
कब, रावण का जयी, राम को कौशल्या ने जाना
मिल पाये कैसे माँ का आदेश विदेश-गमन को?
चैन न लेने देती थी चिंता मोहन के मन को
माँ का आकुल प्रेम उधर श्रृंखला-सदृश लिपटा था
पंख तोलता उड़ने को नवयौवन इधर डटा था
गुलाब खंडेलवाल जी

'प्रभो! इस देश को सत्पथ दिखाओ

'प्रभो! इस देश को सत्पथ दिखाओ
लगी जो आग भारत में बुझाओ
मुझे दो शक्ति, इसको शांत कर दूँ
लपट में रोष की निज शीश धर दूँ

'जिसे मैंने हृदय-शोणित दिया है
जिसे तुमने हरा फिर-से किया है
रहे सुख-शान्ति का उसमें बसेरा
न कुम्हलाये, प्रभो! यह बाग़ मेरा

'विषमता, फूट, मिथ्याचार, भागे
सभी का हो उदय, नव ज्योति जागे
विजित हों प्यार से तक्षक विषैले
दयामय! विश्व में सद्भाव फैले'

गुलाब खंडेलवाल जी

Sunday 4 September 2011

सूफ़ी दोहे / अमीर खुसरो


रैनी चढ़ी रसूल की सो रंग मौला के हाथ।
जिसके कपरे रंग दिए सो धन धन वाके भाग।।

खुसरो बाजी प्रेम की मैं खेलूँ पी के संग।
जीत गयी तो पिया मोरे हारी पी के संग।।

चकवा चकवी दो जने इन मत मारो कोय।
ये मारे करतार के रैन बिछोया होय।।

खुसरो ऐसी पीत कर जैसे हिन्दू जोय।
पूत पराए कारने जल जल कोयला होय।।

खुसरवा दर इश्क बाजी कम जि हिन्दू जन माबाश।
कज़ बराए मुर्दा मा सोज़द जान-ए-खेस रा।।

उज्जवल बरन अधीन तन एक चित्त दो ध्यान।
देखत में तो साधु है पर निपट पाप की खान।।

श्याम सेत गोरी लिए जनमत भई अनीत।
एक पल में फिर जात है जोगी काके मीत।।

पंखा होकर मैं डुली, साती तेरा चाव।
मुझ जलती का जनम गयो तेरे लेखन भाव।।

नदी किनारे मैं खड़ी सो पानी झिलमिल होय।
पी गोरी मैं साँवरी अब किस विध मिलना होय।।

साजन ये मत जानियो तोहे बिछड़त मोहे को चैन।
दिया जलत है रात में और जिया जलत बिन रैन।।

रैन बिना जग दुखी और दुखी चन्द्र बिन रैन।
तुम बिन साजन मैं दुखी और दुखी दरस बिन नैंन।।

अंगना तो परबत भयो, देहरी भई विदेस।
जा बाबुल घर आपने, मैं चली पिया के देस।।

आ साजन मोरे नयनन में, सो पलक ढाप तोहे दूँ।
न मैं देखूँ और न को, न तोहे देखन दूँ।

अपनी छवि बनाई के मैं तो पी के पास गई।
जब छवि देखी पीहू की सो अपनी भूल गई।।

खुसरो पाती प्रेम की बिरला बाँचे कोय।
वेद, कुरान, पोथी पढ़े, प्रेम बिना का होय।।

संतों की निंदा करे, रखे पर नारी से हेत।
वे नर ऐसे जाऐंगे, जैसे रणरेही का खेत।।

खुसरो सरीर सराय है क्यों सोवे सुख चैन।
कूच नगारा सांस का, बाजत है दिन रैन।।

अम्मा मेरे बाबा को भेजो री / अमीर खुसरो

अम्मा मेरे बाबा को भेजो री - कि सावन आया
बेटी तेरा बाबा तो बूढ़ा री - कि सावन आया
अम्मा मेरे भाई को भेजो री - कि सावन आया
बेटी तेरा भाई तो बाला री - कि सावन आया
अम्मा मेरे मामू को भेजो री - कि साबन आया
बेटी तेरा मामु तो बांका री - कि सावन आया

अग्निपथ / हरिवंश राय बच्चन


वृक्ष हों भले खड़े,
हों घने हों बड़े,
एक पत्र छांह भी,
मांग मत, मांग मत, मांग मत,
अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ

तू न थकेगा कभी,
तू न रुकेगा कभी,
तू न मुड़ेगा कभी,
कर शपथ, कर शपथ, कर शपथ,
अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ

यह महान दृश्य है,
चल रहा मनुष्य है,
अश्रु श्वेत रक्त से,
लथपथ लथपथ लथपथ,
अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ

मुक्तक / कुमार विश्वास


बस्ती बस्ती घोर उदासी पर्वत पर्वत खालीपन
मन हीरा बेमोल बिक गया घिस घिस रीता तन चंदन
इस धरती से उस अम्बर तक दो ही चीज़ गज़ब की है
एक तो तेरा भोलापन है एक मेरा दीवानापन
2.
जिसकी धुन पर दुनिया नाचे, दिल एक ऐसा इकतारा है,
जो हमको भी प्यारा है और, जो तुमको भी प्यारा है.
झूम रही है सारी दुनिया, जबकि हमारे गीतों पर,
तब कहती हो प्यार हुआ है, क्या अहसान तुम्हारा है.

3.
जो धरती से अम्बर जोड़े , उसका नाम मोहब्बत है ,
जो शीशे से पत्थर तोड़े , उसका नाम मोहब्बत है ,
कतरा कतरा सागर तक तो ,जाती है हर उमर मगर ,
बहता दरिया वापस मोड़े , उसका नाम मोहब्बत है .
4.
बहुत टूटा बहुत बिखरा थपेडे सह नही पाया
हवाऒं के इशारों पर मगर मै बह नही पाया
रहा है अनसुना और अनकहा ही प्यार का किस्सा
कभी तुम सुन नही पायी कभी मै कह नही पाया
5.
तुम्हारे पास हूँ लेकिन जो दूरी है समझता हूँ
तुम्हारे बिन मेरी हस्ती अधूरी है समझता हूँ
तुम्हे मै भूल जाऊँगा ये मुमकिन है नही लेकिन
तुम्ही को भूलना सबसे ज़रूरी है समझता हूँ

6.
पनाहों में जो आया हो तो उस पर वार करना क्या
जो दिल हारा हुआ हो उस पर फिर अधिकार करना क्या
मुहब्बत का मज़ा तो डूबने की कश्मकश मे है
हो गर मालूम गहराई तो दरिया पार करना क्या

7.
समन्दर पीर का अन्दर है लेकिन रो नही सकता
ये आँसू प्यार का मोती है इसको खो नही सकता
मेरी चाहत को दुल्हन तू बना लेना मगर सुन ले
जो मेरा हो नही पाया वो तेरा हो नही सकता

अमावस की काली रातों में / कुमार विश्वास


अमावस की काली रातों में दिल का दरवाजा खुलता है,
जब दर्द की काली रातों में गम आंसू के संग घुलता है,

जब पिछवाड़े के कमरे में हम निपट अकेले होते हैं,
जब घड़ियाँ टिक-टिक चलती हैं,सब सोते हैं, हम रोते हैं,
जब बार-बार दोहराने से सारी यादें चुक जाती हैं,
जब ऊँच-नीच समझाने में माथे की नस दुःख जाती है,
तब एक पगली लड़की के बिन जीना गद्दारी लगता है,
और उस पगली लड़की के बिन मरना भी भारी लगता है।

जब पोथे खाली होते है, जब हर्फ़ सवाली होते हैं,
जब गज़लें रास नही आती, अफ़साने गाली होते हैं,
जब बासी फीकी धूप समेटे दिन जल्दी ढल जता है,
जब सूरज का लश्कर छत से गलियों में देर से जाता है,
जब जल्दी घर जाने की इच्छा मन ही मन घुट जाती है,
जब कालेज से घर लाने वाली पहली बस छुट जाती है,
जब बेमन से खाना खाने पर माँ गुस्सा हो जाती है,
जब लाख मन करने पर भी पारो पढ़ने आ जाती है,
जब अपना हर मनचाहा काम कोई लाचारी लगता है,
तब एक पगली लड़की के बिन जीना गद्दारी लगता है,
और उस पगली लड़की के बिन मरना भी भारी लगता है।

जब कमरे में सन्नाटे की आवाज़ सुनाई देती है,
जब दर्पण में आंखों के नीचे झाई दिखाई देती है,
जब बड़की भाभी कहती हैं, कुछ सेहत का भी ध्यान करो,
क्या लिखते हो दिन भर, कुछ सपनों का भी सम्मान करो,
जब बाबा वाली बैठक में कुछ रिश्ते वाले आते हैं,
जब बाबा हमें बुलाते है,हम जाते में घबराते हैं,
जब साड़ी पहने एक लड़की का फोटो लाया जाता है,
जब भाभी हमें मनाती हैं, फोटो दिखलाया जाता है,
जब सारे घर का समझाना हमको फनकारी लगता है,
तब एक पगली लड़की के बिन जीना गद्दारी लगता है,
और उस पगली लड़की के बिन मरना भी भारी लगता है।

दीदी कहती हैं उस पगली लडकी की कुछ औकात नहीं,
उसके दिल में भैया तेरे जैसे प्यारे जज़्बात नहीं,
वो पगली लड़की मेरी खातिर नौ दिन भूखी रहती है,
चुप चुप सारे व्रत करती है, मगर मुझसे कुछ ना कहती है,
जो पगली लडकी कहती है, मैं प्यार तुम्ही से करती हूँ,
लेकिन मैं हूँ मजबूर बहुत, अम्मा-बाबा से डरती हूँ,
उस पगली लड़की पर अपना कुछ भी अधिकार नहीं बाबा,
सब कथा-कहानी-किस्से हैं, कुछ भी तो सार नहीं बाबा,
बस उस पगली लडकी के संग जीना फुलवारी लगता है,
और उस पगली लड़की के बिन मरना भी भारी लगता है |||

तुम अगर नहीं आयीं / कुमार विश्वास


तुम अगर नहीं आयीं, गीत गा ना पाऊँगा|
साँस साथ छोडेगी, सुर सजा ना पाऊँगा|
तान भावना की है, शब्द-शब्द दर्पण है,
बाँसुरी चली आओ, होट का निमन्त्रण है|
तुम बिना हथेली की हर लकीर प्यासी है,
तीर पार कान्हा से दूर राधिका सी है|
दूरियाँ समझती हैं दर्द कैसे सहना है?
आँख लाख चाहे पर होठ को ना कहना है|
औषधी चली आओ, चोट का निमन्त्रण है,
बाँसुरी चली आओ होठ का निमन्त्रण है|
तुम अलग हुयीं मुझसे साँस की खताओं से,
भूख की दलीलों से, वक़्त की सजाओं ने|
रात की उदासी को, आँसुओं ने झेला है,
कुछ गलत ना कर बैठे मन बहुत अकेला है|
कंचनी कसौटी को खोट ना निमन्त्रण है|
बाँसुरी चली आओ होठ का निमन्त्रण है|

भ्रमर कोई कुमुदनी पर मचल बैठा तो हंगामा (कविता) / कुमार विश्वास


भ्रमर कोई कुमुदनी पर मचल बैठा तो हंगामा
हमारे दिल में कोई ख्वाब पल बैठा तो हंगामा
अभी तक डूबकर सुनते थे सब किस्सा मुहब्बत का
मैं किस्से को हकीकत में बदल बैठा तो हंगामा

कभी कोई जो खुलकर हंस लिया दो पल तो हंगामा
कोई ख़्वाबों में आकार बस लिया दो पल तो हंगामा
मैं उससे दूर था तो शोर था साजिश है , साजिश है
उसे बाहों में खुलकर कस लिया दो पल तो हंगामा

जब आता है जीवन में खयालातों का हंगामा
ये जज्बातों, मुलाकातों हंसी रातों का हंगामा
जवानी के क़यामत दौर में यह सोचते हैं सब
ये हंगामे की रातें हैं या है रातों का हंगामा

कलम को खून में खुद के डुबोता हूँ तो हंगामा
गिरेबां अपना आंसू में भिगोता हूँ तो हंगामा
नही मुझ पर भी जो खुद की खबर वो है जमाने पर
मैं हंसता हूँ तो हंगामा, मैं रोता हूँ तो हंगामा

इबारत से गुनाहों तक की मंजिल में है हंगामा
ज़रा-सी पी के आये बस तो महफ़िल में है हंगामा
कभी बचपन, जवानी और बुढापे में है हंगामा
जेहन में है कभी तो फिर कभी दिल में है हंगामा

हुए पैदा तो धरती पर हुआ आबाद हंगामा
जवानी को हमारी कर गया बर्बाद हंगामा
हमारे भाल पर तकदीर ने ये लिख दिया जैसे
हमारे सामने है और हमारे बाद हंगामा

कुमार विश्वास koi deewana kahta hai


कोई दीवाना कहता है, कोई पागल समझता है !
मगर धरती की बेचैनी को बस बादल समझता है !!
मैं तुझसे दूर कैसा हूँ , तू मुझसे दूर कैसी है !
ये तेरा दिल समझता है या मेरा दिल समझता है !!

मोहब्बत एक अहसासों की पावन सी कहानी है !
कभी कबिरा दीवाना था कभी मीरा दीवानी है !!
यहाँ सब लोग कहते हैं, मेरी आंखों में आँसू हैं !
जो तू समझे तो मोती है, जो ना समझे तो पानी है !!

समंदर पीर का अन्दर है, लेकिन रो नही सकता !
यह आँसू प्यार का मोती है, इसको खो नही सकता !!
मेरी चाहत को दुल्हन तू बना लेना, मगर सुन ले !
जो मेरा हो नही पाया, वो तेरा हो नही सकता !!

भ्रमर कोई कुमुदुनी पर मचल बैठा तो हंगामा!
हमारे दिल में कोई ख्वाब पल बैठा तो हंगामा!!
अभी तक डूब कर सुनते थे सब किस्सा मोहब्बत का!
मैं किस्से को हकीक़त में बदल बैठा तो हंगामा!!
yah kavta Dr. kumar vishwas ji ki bahut prasiddh hai